Monday, September 16, 2013

क्यों न ‘इस हंस’ का बहिष्कार किया जाए : 1

गोविंदाचार्य मॉडल पर हंस के बाद एक बार फिर भाजपा की मोहर

मज्कूर आलम
 
हो सकता है कि मेरे बुद्घिजीवी मित्रों को इसमें पुनरुक्ति दोष लगे। बार-बार एक ही बात का दोहराव लगे, लेकिन अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए मुझे वैसा करना जरूरी लगा। वैसे भी यह टेक्नो स्टाइलिश स्टाइल में लिखा कोई कलमघिस्सू आलेख नहीं। कोशिश है कि तथ्यों पर बात हो। आपको किसी कल्पित हवाई जहाज या रेलयात्रा पर न ले जाऊं । एक बात और मेरी इस शैली की वजह से यह आलेख बहुत लम्बा होता जा रहा है, इसलिए किस्तों में बात करूंगा। जल्द ही इसी शीर्षक से और पोस्ट भी इस ब्लॉग पर आएंगे।

पहले नरेंद्र मोदी पहले भाजपा प्रचार समिति के अध्यक्ष बनाये गये, उसके बाद भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार भी बना दिये गये। ये वही नरेंद्र मोदी हैं, जिन्हें भाजपा के प्रधानमंत्री ने ही राजधर्म निभाने की सलाह दी थी। आरोप था गुजरात में फैले दंगे को रुकवाने के लिए इन्होंने इच्छाशक्ति नहीं दिखाई, बल्कि उनके सहयोगी भी उसमें शामिल थे। ऐसा ही खेल नब्बे के दशक में भी खेला गया था, जिसका पूरा रोडमैप गोविंदाचार्य ने तैयार किया था। वही गोविंदाचार्य जो इस बार 31 जुलाई को प्रेमचंद के मौके पर हुई गोष्ठी में हंस के आमंत्रित सम्मानित मेहमान थे। जिनकी वजह से बाकी के कई आमंत्रित मेहमान और दर्शकों ने इस कार्यक्रम का बहिष्कार कर दिया। हॉल आधे घंटे से भी कम समय में लगभग खाली हो गया। इसके बाद लगा कि था कि ‘हंस’ को अपनी गलती का एहसास हो गया होगा और वह सितम्बर 2013 के ‘हंस’ में अपनी इस गलती को स्वीकार लेगा और आगे से ऐसी गलती नहीं होगी, ऐसी कोई घोषणा करेगा। लेकिन हुआ इसके एकदम उलट।
आपने देखा इस बार के ‘हंस’ का संपादकीय! अगर देखा होगा, तो पढ़ा होगा! क्योंकि हिन्दी साहित्य जगत में आये दिन ऐसी चर्चा होती रहती है कि हंस तो अपनी संपादकीय की वजह से ही पढ़ा जाता है। मैंने भी पढ़ा। फिर-फिर पढ़ा! और पढ़ने के बाद तय किया कि क्यों न ‘इस हंस’ का बहिष्कार किया जाए।
बात शुरू करने से पहले कुछ बातें गोविंदाचार्य की हो जाए। वे 1962 से संघ के प्रचारक थे। 1988 में भाजपा के आमंत्रण पर पार्टी में महासचिव का पद स्वीकार किया और थिंक टैंक के हिस्सा बनें। 2000 तक वह भाजपा में सक्रिय रूप से दोनों भूमिका निभाते रहे। यह सबको पता है कि इस दौरान उन्होंने रामरथ यात्रा की योजना बनाई, जिसे लेकर लालकृष्ण आडवाणी निकले थे। इस रामरथ की वजह से ही देश के हजारों युवाओं को (हिन्दू-मुस्लिम नहीं) को जान गंवानी पड़ी, लोग इसे अभी तक नहीं भूले। मंच पर गोविंदाचार्य की उपस्थिति की वजह से देश के उदार बुद्घिजीवियों ने कार्यक्रम का बहिष्कार किया, तो लगा कि शायद अब हंस का अपनी भूल का एहसास हो गया होगा। गलती मो मानवीय तकाजा है। यह किसी से भी हो सकती है। लेकिन इसके बाद आए सितम्बर अंक के संपादकीय में जो कुछ लिखा गया, उससे इस बात का जरा भी एहसास नहीं हुआ कि यह एक भूल मात्र थी। लगा सबकुछ जानते-बूझते किया गया।
हंस के कार्यक्रम का विषय था ‘अभिव्यक्ति और प्रतिबंध’। इसी कार्यक्रम पर केंद्रित है हंस के सितम्बर का संपादकीय। संपादकीय में अपने फैसले को जायज ठहराते हुए राजेंद्र यादव लिखते हैं, ‘हमें जानना जरूरी लगा कि कि इस विषय पर विभिन्न राजनीतिक विचारधारा से जुड़े और अन्य स्वतंत्र बुद्घिजीवी क्या सोचते हैं। यहां गोविंदाचार्य का नाम सबसे पहले ध्यान में आया। मित्र संजय सहाय गया में उनसे पहले ही बात कर चुके थे!’
यहां दो सवाल उठते हैं कि पहला यह कि राजेंद्र यादव को इस विषय पर बोलने के लिए सबसे पहला ध्यान गोविंदाचार्य का आता है। एक बार फिर से इस पर गौर कीजिएगा। उनके स्मरण में किस व्यक्ति नाम सबसे पहले आया। उस व्यक्ति का जिसने भारत को पूरी तरह सांप्रदायिकता की भट्टी में झोंकने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी, जिस व्यक्ति की स्ट्रेटजी की वजह से देश के हजारों युवाओं को असमय अपनी जान से हाथ धोना पड़ा और भाजपा ने एक बार फिर उसी स्ट्रेटजी पर अमल करते हुए बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम आगे बढ़ाया है। दूसरा यह कि अगर उन्हें सबसे पहले गोविंदाचार्य का नाम ध्यान में आया तो अगली ही पंक्ति में यह कैसे लिख डाला कि मित्र संजय सहाय गया में उनसे पहले ही बात कर चुके थे। (हालांकि राजेंद्र यादव ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि मित्र संजय सहाय ने उनसे किस संदर्भ में बात की थी, लेकिन हंस के संपादक से यह इतनी अपेक्षा तो की ही जा सकती है हैं कि वह बेलगाम होकर विषयांतर नहीं ही हुए होंगे। (क्योंकि यह बोल वचन -ब्लॉगों और फेसबुक की दुनिया इतनी निरंकुश और बेलगाम हो गई है कि वहां कोई भी कुछ भी लिख सकता है- उनके ही हैं, जो इसी संपादकीय में उन्होंने लिखा है।)
तो क्या लोग हंस से यह उम्मीद करें कि ‘अभिव्यक्ति और प्रतिबंध’ पर बोलने के लिए अगर गोविंदाचार्य को बुलाया जा सकता है, तो कभी अगर उनका विषय ‘आतंकवाद’ हुआ तो उनके मंच पर हम साध्वी प्रज्ञा ठाकुर और हाफिज अल सईद को देखेंगे। या फिर वह यह मान बैठे हैं कि 92 की घटना को बीते दो दशक से भी ज्यादा वक्त गुजर चुका है। इतने दिनों में उनके मेहमान के सारे गुनाह माफ हो चुके हैं। माफ कीजिएगा मैं एक और बात यहां बताना चाहता हूं। वह यह कि 2000 में ही गोविंदाचार्य भाजपा से निकाले जा चुके हैं, इसलिए नहीं कि हिन्दुत्व के एजेंडे पर पार्टी से उनकी कोई असहमति थी, बल्कि इसलिए क्योंकि उनका मानना था कि अटल बिहारी वाजपेयी तो सिर्फ मुखौटा हैं। राजग सरकार तो ‘कहीं और से’ चलती है। बाद में उन्होंने यह कहकर इस प्रसंग को समाप्त भी करने की कोशिश की थी (जैसा कि विवाद होने पर रवायती अंदाज में हर सेलिब्रिटी कहता है) कि उनके बयान को मीडिया ने गलत तरीके से तोड़-मरोड़कर पेश किया, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी इस मुद्दे पर सुलह करने के मूड में बिल्कुल नहीं थे। इस वजह से पार्टी को न चाहते हुए भी उन्हें पार्टी से निकालना पड़ा।
इस संपादकीय में एक ऐसी बात भी है, जो मेरी तो समझ में एकदम नहीं आई, अगर किसी को आई हो तो मुझे जरूर बता दीजिएगा! वह यह,
-हिंदू राजनीति के सिद्घांतकार गोविंदाचार्य के बहाने सारे कम्युनिज्म विरोधी शाखा मृग उछलकूद करने लगे-
पहला तो यह कि कम्युनिज्म विरोधियों ने उछलकूद क्यों मचाया और अगर मचाया तो वह कम्युनिज्म विरोधी थे कौन? यह उन्हें इसलिए भी स्पष्ट करना चाहिए, क्योंकि उन पर कम से कम यह आरोप न लगे कि वह भी बेलगाम ब्लॉगों और फेसबुक के अंदाज बहादुरों जैसे ही हैं और जो भी मन में आता है, लिख डालते हैं।
इसी विषय पर उनका एक और तर्क देखिए
-मैं सोचता हूं कि कोई नक्सली नेता अगर हवाई जहाज में सफर कर रहा हो और उसी में अगर आडवाणी और नरेंद्र मोदी बैठे हों, तो क्या वह नेता हवाई जहाज से कूद पड़ेगा? या रेल के उस डिब्बे से बाहर निकल आएगा, जिसमें ये लोग बैठे हों-
इसमें भी दो बातें हैं। चूंकि वह बात अपने कार्यक्रम के संदर्भ में कर रहे हैं, तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जिन लोगों ने भी कार्यक्रम का बहिष्कार किया, क्या वे नक्सली हैं? या अगर इसे हिन्दुत्व विरोधी विचारधारा वाले लोगों के संदर्भ में हम मानें (असावधानीवश उन्होंने नक्सली लिख दिया हो, हालांकि इसकी उम्मीद उनसे नहीं की जा सकती) तो मेरा प्रश्न उनसे ये है कि माना कि नहीं कूदेगा, तो क्या उसे उन महानुभावों की गोद में जाकर बैठ जाना चाहिए, जैसा की हमलोगों ने हंस के कार्यक्रम में देखा। क्या यह नहीं हो सकता कि दोनों अलग-अलग अपनी-अपनी जगह पर बैठे रहें। क्या उन्हें इतनी भी स्वतंत्रता नहीं है।
अब आते हैं उदय प्रकाश पर की गई उनकी टिप्पणी पर। जिसे उन्होंने सूप तो सूप, चलनियों हंसे, जिसमें पता नहीं कितने छेद... (छेद गिनना मेरे वश में नहीं, इसलिए पता नहीं कह कर लिख रहा हूं, क्योंकि बिना तथ्यों के बात करना उचित नहीं होगा यहां) वाले अंदाज में लिखा है
-हमारे कथाकार उदय प्रकाश ने तो कहीं यहां तक लिख दिया कि आयोजन का सारा खर्चा पप्पू यादव उठा रहे हैं। काश ऐसा हो पाता! मैं निश्चय ही खुलेआम उनकी इस अफवाह का स्वागत करता हूं। मुझे इसके लिए (योगी आदित्यनाथ से) बाकायदा सम्मान-पुरस्कार-मालाएं लेकर तरह-तरह के तर्क-वितर्क से उसे सही ठहराने की जरूरत नहीं है-
हां, मैं मानता हूं कि उदय प्रकाश को योगी आदित्यनाथ के मुद्दे पर सही नहीं ठहराया जा सकता। निश्चित रूप से उनसे गलती हुई है। उन्हें योगी आदित्यनाथ से बाकायदा सम्मान-पुरस्कार-मालाएं नहीं लेनी चाहिए थी, इसके बदले बल्कि यह करना चाहिए था कि उन्हें योगी आदित्यनाथ को बाकायदा अपने मंच पर बुलाकर सम्मान-पुरस्कार-मालाएं देनी चाहिए थी, जैसा कि हंस ने गोविंदाचार्य को बुलाकर किया।
एक बार फिर ‘हंस’ के संपादकीय से मैं यह पंक्ति उठा रहा हूं
-खुली और दोतरफा बहस लोकतंत्र की पहली शर्त है-
जाहिर है कि मैंने जो बातें की है, उस पर हंस के ही संपादकीय में हमारे प्रधानमंत्री के लिए इस्तेमाल किये गये शब्द की तरह वे ‘घुन्ना’ नहीं बनेंगे और वह तार्किक जवाब देंगे कि क्यों न ‘इस हंस’ का बहिष्कार किया जाए। उम्मीद है वह जवाब उनके संपादकीय के शब्दों में बेलगाम ब्लॉगों और फेसबुक की तरह कल्पना की ऐसी घुड़दौड़ पैदा नहीं करेगा, जिससे उनके और हंस प्रति मनोरंजन और जुगुप्सा पैदा हो।


3 comments:

  1. भाई मजकूर आलम जी
    आपकी बात सही है। यदि किसी विषय पर विभिन्न विचारधाराओं के बीच संवाद और तर्क-वितर्क का आयोजन कराया जाता तो यह एक लोकतांत्रिक पहल मानी जा सकती थी। लेकिन संभवतः इस आयोजन का यह उद्देश्य नहीं था। यह कहीं न कहीं वैचारिक भटकाव को इंगित करता है। या फिर आनेवाले समय में हंस में संभावित बदलावों का संकेत देता है। वैसे भी स्त्री विमर्श के नाम पर हंस में जिस तरह की सामग्री परोसी जा रही है उसके कारण मेरी जानकारी में कई घरों में महिलाओं ने हंस को अपने गेट के अंदर लाने पर रोक लगा दी है। यह आधी आबादी का बहिष्कार ही तो है। कोई गुमराह हो जाए या समाज को गुमराह करने की कोशिश करे तो उसका बहिष्कार हो ही जाता है। करना नहीं पड़ता।

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  3. यह साहित्य के पूर्ण राजनीतीकरण की कपट नीति का एक हिस्सा है | ये लोग हर मंच और मचान पर कब्ज़ा कर लेना चाहते हैं जहाँ से जनता से संपर्क किया जा सकता है और फिर उसका शिकार |

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