Monday, September 16, 2013

क्यों न ‘इस हंस’ का बहिष्कार किया जाए : 1

गोविंदाचार्य मॉडल पर हंस के बाद एक बार फिर भाजपा की मोहर

मज्कूर आलम
 
हो सकता है कि मेरे बुद्घिजीवी मित्रों को इसमें पुनरुक्ति दोष लगे। बार-बार एक ही बात का दोहराव लगे, लेकिन अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए मुझे वैसा करना जरूरी लगा। वैसे भी यह टेक्नो स्टाइलिश स्टाइल में लिखा कोई कलमघिस्सू आलेख नहीं। कोशिश है कि तथ्यों पर बात हो। आपको किसी कल्पित हवाई जहाज या रेलयात्रा पर न ले जाऊं । एक बात और मेरी इस शैली की वजह से यह आलेख बहुत लम्बा होता जा रहा है, इसलिए किस्तों में बात करूंगा। जल्द ही इसी शीर्षक से और पोस्ट भी इस ब्लॉग पर आएंगे।

पहले नरेंद्र मोदी पहले भाजपा प्रचार समिति के अध्यक्ष बनाये गये, उसके बाद भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार भी बना दिये गये। ये वही नरेंद्र मोदी हैं, जिन्हें भाजपा के प्रधानमंत्री ने ही राजधर्म निभाने की सलाह दी थी। आरोप था गुजरात में फैले दंगे को रुकवाने के लिए इन्होंने इच्छाशक्ति नहीं दिखाई, बल्कि उनके सहयोगी भी उसमें शामिल थे। ऐसा ही खेल नब्बे के दशक में भी खेला गया था, जिसका पूरा रोडमैप गोविंदाचार्य ने तैयार किया था। वही गोविंदाचार्य जो इस बार 31 जुलाई को प्रेमचंद के मौके पर हुई गोष्ठी में हंस के आमंत्रित सम्मानित मेहमान थे। जिनकी वजह से बाकी के कई आमंत्रित मेहमान और दर्शकों ने इस कार्यक्रम का बहिष्कार कर दिया। हॉल आधे घंटे से भी कम समय में लगभग खाली हो गया। इसके बाद लगा कि था कि ‘हंस’ को अपनी गलती का एहसास हो गया होगा और वह सितम्बर 2013 के ‘हंस’ में अपनी इस गलती को स्वीकार लेगा और आगे से ऐसी गलती नहीं होगी, ऐसी कोई घोषणा करेगा। लेकिन हुआ इसके एकदम उलट।
आपने देखा इस बार के ‘हंस’ का संपादकीय! अगर देखा होगा, तो पढ़ा होगा! क्योंकि हिन्दी साहित्य जगत में आये दिन ऐसी चर्चा होती रहती है कि हंस तो अपनी संपादकीय की वजह से ही पढ़ा जाता है। मैंने भी पढ़ा। फिर-फिर पढ़ा! और पढ़ने के बाद तय किया कि क्यों न ‘इस हंस’ का बहिष्कार किया जाए।
बात शुरू करने से पहले कुछ बातें गोविंदाचार्य की हो जाए। वे 1962 से संघ के प्रचारक थे। 1988 में भाजपा के आमंत्रण पर पार्टी में महासचिव का पद स्वीकार किया और थिंक टैंक के हिस्सा बनें। 2000 तक वह भाजपा में सक्रिय रूप से दोनों भूमिका निभाते रहे। यह सबको पता है कि इस दौरान उन्होंने रामरथ यात्रा की योजना बनाई, जिसे लेकर लालकृष्ण आडवाणी निकले थे। इस रामरथ की वजह से ही देश के हजारों युवाओं को (हिन्दू-मुस्लिम नहीं) को जान गंवानी पड़ी, लोग इसे अभी तक नहीं भूले। मंच पर गोविंदाचार्य की उपस्थिति की वजह से देश के उदार बुद्घिजीवियों ने कार्यक्रम का बहिष्कार किया, तो लगा कि शायद अब हंस का अपनी भूल का एहसास हो गया होगा। गलती मो मानवीय तकाजा है। यह किसी से भी हो सकती है। लेकिन इसके बाद आए सितम्बर अंक के संपादकीय में जो कुछ लिखा गया, उससे इस बात का जरा भी एहसास नहीं हुआ कि यह एक भूल मात्र थी। लगा सबकुछ जानते-बूझते किया गया।
हंस के कार्यक्रम का विषय था ‘अभिव्यक्ति और प्रतिबंध’। इसी कार्यक्रम पर केंद्रित है हंस के सितम्बर का संपादकीय। संपादकीय में अपने फैसले को जायज ठहराते हुए राजेंद्र यादव लिखते हैं, ‘हमें जानना जरूरी लगा कि कि इस विषय पर विभिन्न राजनीतिक विचारधारा से जुड़े और अन्य स्वतंत्र बुद्घिजीवी क्या सोचते हैं। यहां गोविंदाचार्य का नाम सबसे पहले ध्यान में आया। मित्र संजय सहाय गया में उनसे पहले ही बात कर चुके थे!’
यहां दो सवाल उठते हैं कि पहला यह कि राजेंद्र यादव को इस विषय पर बोलने के लिए सबसे पहला ध्यान गोविंदाचार्य का आता है। एक बार फिर से इस पर गौर कीजिएगा। उनके स्मरण में किस व्यक्ति नाम सबसे पहले आया। उस व्यक्ति का जिसने भारत को पूरी तरह सांप्रदायिकता की भट्टी में झोंकने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी, जिस व्यक्ति की स्ट्रेटजी की वजह से देश के हजारों युवाओं को असमय अपनी जान से हाथ धोना पड़ा और भाजपा ने एक बार फिर उसी स्ट्रेटजी पर अमल करते हुए बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम आगे बढ़ाया है। दूसरा यह कि अगर उन्हें सबसे पहले गोविंदाचार्य का नाम ध्यान में आया तो अगली ही पंक्ति में यह कैसे लिख डाला कि मित्र संजय सहाय गया में उनसे पहले ही बात कर चुके थे। (हालांकि राजेंद्र यादव ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि मित्र संजय सहाय ने उनसे किस संदर्भ में बात की थी, लेकिन हंस के संपादक से यह इतनी अपेक्षा तो की ही जा सकती है हैं कि वह बेलगाम होकर विषयांतर नहीं ही हुए होंगे। (क्योंकि यह बोल वचन -ब्लॉगों और फेसबुक की दुनिया इतनी निरंकुश और बेलगाम हो गई है कि वहां कोई भी कुछ भी लिख सकता है- उनके ही हैं, जो इसी संपादकीय में उन्होंने लिखा है।)
तो क्या लोग हंस से यह उम्मीद करें कि ‘अभिव्यक्ति और प्रतिबंध’ पर बोलने के लिए अगर गोविंदाचार्य को बुलाया जा सकता है, तो कभी अगर उनका विषय ‘आतंकवाद’ हुआ तो उनके मंच पर हम साध्वी प्रज्ञा ठाकुर और हाफिज अल सईद को देखेंगे। या फिर वह यह मान बैठे हैं कि 92 की घटना को बीते दो दशक से भी ज्यादा वक्त गुजर चुका है। इतने दिनों में उनके मेहमान के सारे गुनाह माफ हो चुके हैं। माफ कीजिएगा मैं एक और बात यहां बताना चाहता हूं। वह यह कि 2000 में ही गोविंदाचार्य भाजपा से निकाले जा चुके हैं, इसलिए नहीं कि हिन्दुत्व के एजेंडे पर पार्टी से उनकी कोई असहमति थी, बल्कि इसलिए क्योंकि उनका मानना था कि अटल बिहारी वाजपेयी तो सिर्फ मुखौटा हैं। राजग सरकार तो ‘कहीं और से’ चलती है। बाद में उन्होंने यह कहकर इस प्रसंग को समाप्त भी करने की कोशिश की थी (जैसा कि विवाद होने पर रवायती अंदाज में हर सेलिब्रिटी कहता है) कि उनके बयान को मीडिया ने गलत तरीके से तोड़-मरोड़कर पेश किया, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी इस मुद्दे पर सुलह करने के मूड में बिल्कुल नहीं थे। इस वजह से पार्टी को न चाहते हुए भी उन्हें पार्टी से निकालना पड़ा।
इस संपादकीय में एक ऐसी बात भी है, जो मेरी तो समझ में एकदम नहीं आई, अगर किसी को आई हो तो मुझे जरूर बता दीजिएगा! वह यह,
-हिंदू राजनीति के सिद्घांतकार गोविंदाचार्य के बहाने सारे कम्युनिज्म विरोधी शाखा मृग उछलकूद करने लगे-
पहला तो यह कि कम्युनिज्म विरोधियों ने उछलकूद क्यों मचाया और अगर मचाया तो वह कम्युनिज्म विरोधी थे कौन? यह उन्हें इसलिए भी स्पष्ट करना चाहिए, क्योंकि उन पर कम से कम यह आरोप न लगे कि वह भी बेलगाम ब्लॉगों और फेसबुक के अंदाज बहादुरों जैसे ही हैं और जो भी मन में आता है, लिख डालते हैं।
इसी विषय पर उनका एक और तर्क देखिए
-मैं सोचता हूं कि कोई नक्सली नेता अगर हवाई जहाज में सफर कर रहा हो और उसी में अगर आडवाणी और नरेंद्र मोदी बैठे हों, तो क्या वह नेता हवाई जहाज से कूद पड़ेगा? या रेल के उस डिब्बे से बाहर निकल आएगा, जिसमें ये लोग बैठे हों-
इसमें भी दो बातें हैं। चूंकि वह बात अपने कार्यक्रम के संदर्भ में कर रहे हैं, तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जिन लोगों ने भी कार्यक्रम का बहिष्कार किया, क्या वे नक्सली हैं? या अगर इसे हिन्दुत्व विरोधी विचारधारा वाले लोगों के संदर्भ में हम मानें (असावधानीवश उन्होंने नक्सली लिख दिया हो, हालांकि इसकी उम्मीद उनसे नहीं की जा सकती) तो मेरा प्रश्न उनसे ये है कि माना कि नहीं कूदेगा, तो क्या उसे उन महानुभावों की गोद में जाकर बैठ जाना चाहिए, जैसा की हमलोगों ने हंस के कार्यक्रम में देखा। क्या यह नहीं हो सकता कि दोनों अलग-अलग अपनी-अपनी जगह पर बैठे रहें। क्या उन्हें इतनी भी स्वतंत्रता नहीं है।
अब आते हैं उदय प्रकाश पर की गई उनकी टिप्पणी पर। जिसे उन्होंने सूप तो सूप, चलनियों हंसे, जिसमें पता नहीं कितने छेद... (छेद गिनना मेरे वश में नहीं, इसलिए पता नहीं कह कर लिख रहा हूं, क्योंकि बिना तथ्यों के बात करना उचित नहीं होगा यहां) वाले अंदाज में लिखा है
-हमारे कथाकार उदय प्रकाश ने तो कहीं यहां तक लिख दिया कि आयोजन का सारा खर्चा पप्पू यादव उठा रहे हैं। काश ऐसा हो पाता! मैं निश्चय ही खुलेआम उनकी इस अफवाह का स्वागत करता हूं। मुझे इसके लिए (योगी आदित्यनाथ से) बाकायदा सम्मान-पुरस्कार-मालाएं लेकर तरह-तरह के तर्क-वितर्क से उसे सही ठहराने की जरूरत नहीं है-
हां, मैं मानता हूं कि उदय प्रकाश को योगी आदित्यनाथ के मुद्दे पर सही नहीं ठहराया जा सकता। निश्चित रूप से उनसे गलती हुई है। उन्हें योगी आदित्यनाथ से बाकायदा सम्मान-पुरस्कार-मालाएं नहीं लेनी चाहिए थी, इसके बदले बल्कि यह करना चाहिए था कि उन्हें योगी आदित्यनाथ को बाकायदा अपने मंच पर बुलाकर सम्मान-पुरस्कार-मालाएं देनी चाहिए थी, जैसा कि हंस ने गोविंदाचार्य को बुलाकर किया।
एक बार फिर ‘हंस’ के संपादकीय से मैं यह पंक्ति उठा रहा हूं
-खुली और दोतरफा बहस लोकतंत्र की पहली शर्त है-
जाहिर है कि मैंने जो बातें की है, उस पर हंस के ही संपादकीय में हमारे प्रधानमंत्री के लिए इस्तेमाल किये गये शब्द की तरह वे ‘घुन्ना’ नहीं बनेंगे और वह तार्किक जवाब देंगे कि क्यों न ‘इस हंस’ का बहिष्कार किया जाए। उम्मीद है वह जवाब उनके संपादकीय के शब्दों में बेलगाम ब्लॉगों और फेसबुक की तरह कल्पना की ऐसी घुड़दौड़ पैदा नहीं करेगा, जिससे उनके और हंस प्रति मनोरंजन और जुगुप्सा पैदा हो।


Sunday, November 15, 2009

है न कमाल का आइडिया

दिल्ली सरकार ने भिखारियों को तड़ीपार का आदेश दे दिया था, जिस पर हाईकोर्ट ने रोक लगाते हुए कहा कि यह गलत है. वह इस फैसले को राज ठाकरे के गैरमराठियों के भगाये जाने के फैसले से जोड़ती है.
अगर मान भी लिया जाए कि ऐसा ही है, तो इसमें गलत क्या है. आखिर राजठाकरे अपने इसी कृत्य के चलते तो शासन तंत्र में पहुंचे हैं. है कि नहीं. और लोकतंत्र में राजनैतिक दलों का अंतिम लक्ष्य क्या है, सत्ता में ही पहुंचना न.
अगर सत्ता में जनता को मारकर या अपने यहां से भगाकर पहुंचा जा सकता है, तो क्या जरूरत है, उन्हें पालने-पोसने की. दूसरी बात यह कि जनता को जब सरकारें पसंद नहीं आती तो वह उन्हें हटाती नहीं है क्या? तो फिर सरकार को अगर जनता पसंद नहीं आती, तो वह उन्हें क्यों नहीं हटा सकती. ये कैसी स्वतंत्रता है, जिसमें एकतरफा आजादी है? जवाबदेह सिर्फ सरकार है, जनता क्यों नहीं? क्यों नहीं सरकारें भी अपने पसंद की जनता चुन सकती. कवि ब्रेख्त ने भी तो राजनेताओं को जनता को भंग करने की सलाह दी ही है. अगर सरकारें उस सलाह पर अमल कर रही हैं, तो इसमें बावेला कैसा.
आप ही बताइए भिखारियों से किसी देश का कभी भला हुआ है क्या? भला तो बड़े-बड़े सेठ करते हैं, जो चंदा देते हैं राजनीतिक दलों को. जिनसे वे चुनाव लडक़र सत्ता में पहुंचते हैं. इसलिए चंदा देने वालों को इनकमटैक्स रिबेट भी दिया जाता है. चंदा लेने का हक तो सिर्फ राजनीतिक पार्टियों को है. उनके जैसा व्यवहार कोई और चाहे भिखारी ही करें, तो इसे मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं माना जायेगा. लेकिन भिखारी हैं कि बाज ही नहीं आ रहे. लोगों से चंदा (भीख) ले रहे हैं. कल को ये यह भी दावा कर सकते हैं कि जब हम चंदा ले रहे हैं, तो शासन चलाने के हकदार भी हमीं हैं. इस नारे के साथ कि पूरी तरह स्वदेशी और आमजनों की सरकार के साथ वह चुनाव में भी ताल ठोंक सकते हैं. जनता के बीच जाकर कह सकते हैं- सरकार विश्व बैंक और अंतरराष्टï्रीय मुद्रा कोष जैसे विदेशी संस्था और दूसरे देश के अलावा बड़े-बड़े उद्योगपति-पूंजीपति के सामने हाथ नहीं फैलाती क्या? तो हम चंदा लेते हैं क्या बुरा है. हम तो पूरी तरह स्वदेशी आम आदमी से चंदा लेते हैं. इसलिए जनता के भी असली नेता हम ही हैं. इसलिए जनता हमें ही चुनें, चूंकि हम पैसा आप से लेते हैं, इसलिए जवाबदेह भी आप के लिए ही होंगे. किसी विदेशी देश या पूंजीपति के लिए नहीं. यह सरकार तो विकसित देश और पूंजिपतियों के हाथों बिकी हुई है. यह आपकी नहीं सुनेगी. अब आप ही बताइए इस तरह की साजिश की बू अगर किसी सरकार को लगे, तो क्या वह कभी चुप बैठेगी, नहीं न. बस यही मामला है. चूंकि दिल्ली सरकार इस आसन्न खतरे को भांप गयी थी. इसलिए दिल्ली को खूबसूरत बनाने और राष्टï्रमंडल खेल का बहाना बनाकर उनसे छुटकारा पाने की कोशिश में लगी है. इससे तात्कालिक फायदा तो दिल्ली सरकार तो होगा ही होगा. लेकिन दीर्घकालीन पूरे देश के राजनीतिक दलों और सरकारों को होगा. क्योंकि उन्हें वापस उनके पैतृक निवास भेजने से वे एकजुट भी नहीं रह पायेंगे. उनकी एकता खत्म हो जायेगी. क्योंकि वह सब अलग-अलग जगहों से आये हुए लोग हैं. फिर वह इस तरह की कोई कोशिश नहीं कर पायेंगे, जिससे केंद्र समेत बाकी के राज्य सरकारों पर खतरा मंडराए. उसके बाद निरापद हो कर राजनैतिक दल ही सरकार बनायेंगे, उनकी सत्ता को कोई चुनौती नहीं दे पायेगा. था न दिल्ली सरका का कमाल का आइडिया, लेकिन हाईकोर्ट के एक फैसले से इस पर तुषारापात पड़ता दिख रहा है.

Thursday, December 18, 2008

कोरे काग़ज़

कोरे काग़ज़ एक युवा मन की कितनी कातरता, कितनी बेचैनी उसमें उभरकर आयी है इसका अनुमान आप उपन्यास प्रारम्भ करते ही लगा लेगें। चौबीस वर्षीय पंकज को जब यह पता चलता है कि उसकी माँ उसकी माँ नहीं है तब अपनी असली माँ अपने असली बाप को जानने की तड़प उसे दीवानगी की हदों तक ले जाती है।कोरे कग़ज़

कोरे काग़ज़
यह सत्ताईस अक्टूबर का दिन था-माँ की ज़िन्दगी का बचा-खुचा-सा। माँ की देह में अभी पाँचों तत्त्व जुड़े हुए थे, पर जोड़नेवाले प्राणों के धागें की गाँठ बस खुलने को ही थी। उसने काँपते होठों से पाँच ख़्वाहिशें ज़ाहिर कीं-शायद एक-एक तत्त्व की एक-एक ख़्वाहिश थी। सबसे पहली ख़्वाहिश कि मैं पीपलवाले मन्दिर में जाकर पण्डित निधि महाराज को बुला लाऊँ। और साथ ही, दूसरी ख़्वाहिश थी कि लौटते हुए ताज़े फूलों का एक हार ख़रीद लाऊँ।पीपलवाला मन्दिर दूर नहीं, हमारी गली के मोड़ पर है, इसलिए तेज़ क़दमों से जाने में सिर्फ़ तीन मिनट लगे, और लौटते हुए लगभग अस्सी बरस के निधि महाराज को कन्धे का सहारा देकर चलने में लगभग पन्द्रह मिनट। एक फूलवाला मन्दिर के चबूतरे के पास ही बैठकर फूल बेचता है, इसलिए फूलों का हार उतनी देर में ख़रीद लिया, जितनी देर में निधि महाराज ने उठकर पावों में खड़ाऊँ पहनी...माँ ने प्राणों के धागे की गाँठ शायद कसकर पकड़ी हुई थी। मैं जब वापस आया, माँ की देह के पाँचों तत्व अभी भी जुड़े हुए थे...निधि महाराज को आसन देकर, मैंने माँ की तरफ़ देखा। मां ने काँपते हुए हाथों से सामने दीवार पर लगी हुई, मेरे पिता की तस्वीर की ओर इशारा किया। मैंने दीवार से तस्वीर उतारी और माँ के बिस्तर पर ले आया।तस्वीर को छाती के पास टिकाकर, माँ ने सिरहाने की ओर इशारा किया, सिरहाने के नीचे पड़ी हुई चाबी की ओर। और फिर कमरे के कोने में गड़े हुए लकड़ी के सन्दूक़ की ओर।अब माँ की अगली दो ख़वाहिशें और थीं। यह कि सन्दूक़ में से मैं मौलियों से बँधे हुए काग़ज़ भी निकाल लाऊँ, और किनारीवाला एक दुपट्टा भी।माँ है सो माँ ही कहूँगा, पर उम्र के लिहाज़ से नानी या दादी भी कह सकता था। हैरानी इसलिए हुई, जब माँ ने वह किनारी जड़ा दुपट्टा अपने सिर पर ओढ़ लिया। मौलियों में बँधे हुए काग़ज़ उसने एक बार अपने हाथों में भरे, फिर मेरी दोनों हथेलियों पर रख दिये। कहा, ‘‘तुम्हारी अमानत है।’’उस वक़्त माँ ने नहीं, निधि महाराज ने कहा, ‘‘पंकज बेटा ! यह मकान की वसीयत है। दूसरे काग़ज़ भी ज़रूरी हैं। सँभालकर रखना है।’’ साथ ही, माँ का इशारा पाते ही निधि महाराज ने मेरे सिर पर हाथ रखा, कुछ कहा, कुछ आशीर्वाद जैसा। पर संस्कृत का वह श्लोक मेरी समझ से दूर मात्र मेरे कानों का स्पर्श पाकर रह गया।फिर माँ ने पतझड़ के पत्तों जैसे हाथों में फूलों का हार थामा और मेरे पिता की तस्वीर पर चढ़ा दिया। फिर निधि महाराज की ओर देख टूटती-सी आवाज़ में कहने लगी, ‘‘आज सत्ताईस तारीख़...आज बृहस्पति तुला में आया है...आज मेरा संजोग है...’’निधि ने दोनों हाथ आशीष की मुद्रा में ऊपर उठाये।माँ ने अभी-अभी जब एकटक मेरी ओर देखा था, उसकी देह का स्पन्दन-शायद सारे अंगों में से निकलकर, उसकी आँखों में इकट्ठा हो गया था। पर अब उसकी आँखें बन्द थीं....अपनी साँस मुझे चलती हुई नहीं, रुकती हुई-सी लगी।घर की यह कोठरी शायद शान्त समाधि की अवस्था में पहुँच जाती, पर निधि महाराज के संस्कृत के श्लोकों ने सारी कोठरी में एक हलचल-सी पैदा कर दी....हार के फूलों की सुगन्ध भी एक हलचल की तरह कमरे में फैल रही थी...माँ के हाथ हिले-नमस्कार की मुद्रा में, और निधि महाराज के पैरों की तरफ़ जा झुके। साथ ही, हाथों में पहनी हुई सोने की दो चूड़ियाँ निधि महाराज के चरणों के पास रख दीं...माँ के होंठ-चेहरे की झुर्रियों में दो झुर्रियों की तरह ही सिकुड़े हुए थे, पर उनमें से जैसे एक आवाज़ झरी, ‘‘मेरा पंकज मुझे अग्नि देगा...’’जवाब में निधि महाराज ने श्लोकों की लय को थामकर कहा, ‘‘इच्छा पूरी होगी।’’लगा-माँ के चेहरे की खिंची हुई झुर्रियाँ शान्त और सहज हो गयी हैं। आवाज़ भी सहज लगी, ‘‘गंगाजल....’’जानता था-माँ ने आले में गंगाजल का लोटा रख छोड़ा है, मैंने चम्मच से माँ के मुँह में गंगाजल डाला।होंठों में स्पन्दन-सा हुआ, जो पानी की कुछ बूँदों के साथ शान्त हो गया। फिर कोई आवाज़ नहीं आयी। यहीं गंगाजल की कुछ बूँदें शायद माँ की पाँचवीं और आख़िरी ख़्वाहिश थी...और लगा-प्राणों का धागा अब पाँच तत्त्वों को खोल रहा था...पाँच तत्त्व-अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी और आकाश हैं, और माँ की पाँच ख़्वाहिशें शायद एक-एक तत्त्व की एक-एक इच्छा की तरह थीं, पर नहीं जान पाया कि कौन-सी ख़्वाहिश कौन-से तत्त्व ने की थी...सिर्फ़ यही जाना कि पाँचों ख़्वाहिशें पूरी हो गयीं थीं, और अब पाँचों तत्त्व खुल-बिखर रहे थे...निधि महाराज ने घी का एक दीया जलाकर माँ के सिरहाने के पास रख दिया। बाहरवाले कमरे में अचानक किसी के आने की आहट महसूस हुई, शायद माँ की पड़ोसन रक्खी मौसी आयी थी, और साथ में गली-मोहल्ले का कोई और भी...पर मैं उधर देखता कि तभी दहलीज़ की ओर एक अपरिचित-सी आवाज़ सुनाई दी, ‘‘नमस्कार महाराज !’’निधि महाराज ने दरवाज़े की ओर देखा, दोनों हाथ उठाकर नमस्कार स्वीकार किया, और आसन से उठकर उस ओर बढ़े....मैंने अपरिचित आवाज़ वाले को पहचान लिया। दूर के रिश्ते से मेरा चाचा है वह-जनक चाचा। दो गलियों के फ़ासले पर रहता है। पता था कि उन लोगों का हमारे घर आना-जाना नहीं था, तो भी हैरानी नहीं हुई। ऐसे वक़्त शायद उसका आना स्वाभाविक ही था। पर हैरानी हुई-इस शोक में शरीक होने के लिए आया है चाचा। अन्दर कोठी की तरफ़ नहीं आया वह। दरवाज़े में से ही पीछे बाहर के कमरे की ओर लौटता हुआ, निधि महाराज से कहने लगा, ‘‘पता लगा था कि बचेगी नहीं, इसलिए मैं आपसे बात करने के लिए मन्दिर गया था...’’निधि महाराज दहलीज़ को लाँघकर बाहर के कमरे में जाकर खड़े हो गये। उन्हीं की आवाज़ आयी, ‘‘कहिए !’’जवाब में चाचा की आवाज़ सुनाई दी, ‘‘आप वेदों के ज्ञाता हैं महाराज ! आपसे भी कहना होगा ? आप सब जानते हैं।’’निधि महाराज की मुस्कराहट दिखाई नहीं दी, पर जितनी भी अक्षरों में से दिखाई दे सकती है, वह दिख गयी। कह रहे थे,‘‘यदि सब जानता हूं, तो फिर कुछ कहने की ज़रूरत नहीं ।’’निधि महाराज ने कुछ न कहने का जैसे आदेश ही दिया था, पर कहनेवाले ने फिर भी कहा, ‘‘बस यही शंका निवृत करनी थी, महाराज ! कि देह को अग्नि देनी होगी, जिसके लिए कुल के बेटे को बुलाने के लिए अभी सन्देश भेजना होगा। आप जानते हैं कि मेरा बेटा शहर में नहीं रहता....’’निधि महाराज की उम्र अस्सी के क़रीब है, इसलिए उनकी आवाज़ में एक लड़खड़ाहठ-सी रहती है, पर इस वक़्त जो आवाज़ सुनी वह ऊँची नहीं थी, लेकिन बहुत सख़्त थी-‘‘कुल का बेटा उसके पास खड़ा है, कहीं से बुलाना नहीं पड़ेगा।’’जवाब में चाचा का स्वर काँप उठा, ‘‘क्या कह रहे हैं महाराज ! क्या पंकज अग्नि देगा ?’’‘‘हाँ, पंकज अग्नि देगा।’’ निधि महाराज ने जवाब दिया, और साथ ही कहा, ‘‘आप लोग शव-यात्रा में आना चाहें तो ज़रूर आएँ ! मृतक आपके कुल की गृहलक्ष्मी है।’’‘‘क्या कह रहे हैं महाराज !’’-लगा, चाचा की आवाज़ हकला गयी। कह रहा था, ‘‘यह अधर्म होगा महाराज ! गृहलक्ष्मी को दत्तक पुत्र अग्नि नहीं दिखा सकता....दत्तक पुत्र वंश का नाम धारण कर सकता है, ज़मीन-जायदाद में से हिस्सा ले सकता है, पर अग्नि नहीं दे सकता...’’‘‘दे सकता है...’’ निधि महाराज का स्वर उठा। शायद उन्हें कुछ और कहना था, पर उनकी बात को काटती-सी चाचा की आवाज़ आयी, ‘‘यह कौन से वेद में लिखा हुआ है, महाराज ?’’निधि महाराज का स्वर जितना धीमा था, उतना ही सहज और सख़्त भी, ‘‘जिस दिन वेदों के पठन के लिए आओगे, उस दिन बताऊँगा। इस वक़्त जा सकते हो। चार बजे शव-यात्रा के लिए आ जाना।’’लगा-एक मृत देह के सिरहाने जल रहे दीये की बाती की तरह, मैं भी चुपचाप जल रहा था...मैं कौन हूँ ? यह दत्तक पुत्र क्या होता है ? माँ ने निधि महाराज को बुलाकर यह क्यों कहा कि पंकज अग्नि देगा ? क्या उसे मालूम था कि कोई चाचा आकर मुझे अग्नि देने से रोकेगा ? कुछ समझ में नहीं आया-सिर्फ़ यही जान पाया कि कुछ दीये आरती के थाल में रखने के लिए होते हैं, और कुछ दीये सिर्फ़ मरनेवालों के सिरहाने के पास रखने के लिए...और मैं शायद आरती के थाल में रखा जानेवाला दीया नहीं हूँ...

दो

आज अचानक कोई पाताल-गंगा, धरती पर आकर, मेरे पैरों के आगे बहने लगी है..लगता है-मेरी उम्र के पूरे चौबीस बरस, मेरे सामने एक-एक करके इस नदी में बहते जा रहे हैं...आज घर में बहुत-सी आवाज़ें इकट्ठी हो गयी थीं। रक्खी मौसी की आवाज़ भी। मेरे सिर को सलहाकर रोती रही। गली के और जाने किस-किस घर से आये मर्दों की आवाजें भी थीं...पर इस वक़्त तक, साँझ सँवला जाने तक, वे सारी आवाज़ें उस पाताल-गंगा में बहती हुई मुझमें बहुत दूर निकल गयी हैं.....लेकिन सुबह जो जनक चाचा अग्नि देने का अधिकार लेकर आया था, उसकी आवाज़ फिर नहीं फूटी...शायद पाताल-गंगा के किसी पिछले मोड़ पर ही पानी में गिर गयी थी, मैंने देखी नहीं।निधि महाराज ने मेरे हाथ से माँ के पार्थिव शरीर को अग्नि दिखायी। उस वक़्त उनकी आवाज़ नहीं काँपी, हाँ मेरा हाथ अवश्य काँप गया था..लगा-‘माँ’ लफ़्ज़ भी पाताल-गंगा में बह रहा है।नहीं जानता कि कोई रिश्ता किस तरह पानी में बह सकता है...आज सन्ध्या-पूजन के बाद निधि महाराज आये थे। उनके अँगोछे में कुछ फल थे, मिठाई भी। मुझे ज़बरदस्ती कुछ खिलाया। बोले-यह मन्दिर का प्रसाद है...पूछा, ‘‘महाराज ! जो बता सकती थी, वह चौबीस बरस चुप रही। अब हमेशा के लिए चुप हो गयी है। आप बताइए ! वह मेरी कौन थी ?’’‘‘वह तुम्हारी माँ थी पंकज !’’ निधि महाराज ने मेरे पास बैठकर मेरे सिर पर हाथ रखा।मैंने कहा, ‘‘जानता हूँ, उसकी पहचान इसी लफ़्ज़ में है। पर आज अचानक मुझसे यह पहचान क्यों छीनी जा रही है ?’’निधि महाराज हँस दिये। जवाब देने की बजाय पूछने लगे, ‘‘पहचान कौन देता है बेटा ?’’कहा, ‘‘शायद जन्म ही यह पहचान देता है....’’कहने लगे, ‘‘अन्तरात्मा यह पहचान देती है। तुम उससे पूछो कि वह तुम्हारी कौन थी ?’’कहा, ‘‘पर अन्तरात्मा उसी ने बनायी थी। उसी ने यह अक्षर सिखाया। मेरे लिए वह पूर्ण सत्य था, पर आज किसी ने उस पूर्ण सत्य को झूठ क्यों कहना चाहा ?’’‘‘झूठ, लोभ सिखाता है बेटा ! अन्तरात्मा नहीं सिखाती।’’‘‘किस चीज़ का लोभ ?’’‘‘इस मकान का, पैसे का....’’‘‘पर बात धर्म की हुई थी, पैसे की नहीं....’’‘‘पैसे का लोभ धर्म की आड़ लेता है...’’‘‘पर उसने मुझे दत्तक पुत्र कहा था। दत्तक पुत्र क्या होता है ?’’निधि महाराज जवाब को सवाल में बदलना जानते हैं। कहने लगे, ‘‘पीरों-फ़कीरों ने जिस्म को ख़ुदा का हुजरा कहा है, आत्मा की कोठरी। तुम बताओ, महान कोठरी होती है कि आत्मा ?’’कहा, ‘‘कोठरी महान होती है, लेकिन आत्मा के कारण।’’निधि महाराज फिर मुस्कराये। कहने लगे, पुत्र तन की कोठरी से भी जन्म ले सकता है, आत्मा से भी। पर यह दुनिया कोठरी को मान्यता देती है, आत्मा को नहीं। भूल जाती है कि कोठरी, आत्मा के कारण महान होती है...‘‘मैं निधि महाराज का दर्शन-शास्त्र समझने की अवस्था में नहीं था, इसलिए फिर पूछा, ‘‘क्या मैंने इस माँ की कोख से जन्म नहीं लिया था ?’’‘‘तुमने उसकी आत्मा से जन्म लिया था..’’‘‘सो गोद लिये गये पुत्र को दत्तक पुत्र कहते हैं ?’’‘‘कहने दो, जो कहते हैं...’’लगा-पाताल गंगा में मैंने अपने बहते हुए रिश्ते को उस लकड़ी की तरह थामा हुआ है जिसके सहारे मैं शायद डूबने से बच सकता हूँ...पूछा, ‘‘मेरी यह माँ और मेरा यह बाप मुझे कहाँ से लाया था ?’’निधि महाराज क्षण-भर के लिए अन्तर्धान हो गये, फिर कहने लगे, ‘‘पिता को तुम्हारा सुख नसीब नहीं था। उनके निधन के बाद तुम्हारी माँ ने तुम्हें पाया था।’’कहाँ से ? यह सवाल पाताल-गंगा में गोता लगाने जैसा सवाल था, इसलिए होंठों में हरकत नहीं हुई।निधि महाराज ही कहने लगे, ‘‘उस वक़्त भी तुम्हारे इस चाचा ने बहुत मुसीबत खड़ी की थी। इस मकान का लोभ जो था ! सो उसने धर्म की आड़ ली कि विधवा स्त्री कोई पुत्र गोद नहीं ले सकती...’’‘‘क्या ऐसी भी कोई वेद-आज्ञा है ?’’‘‘इन्होंने वेद कब पढ़े हैं ! विधवा का धन, उसके दूर-नजदीक के सम्बन्धियों के हाथों से न निकल जाए, इसलिए ब्राह्मण-पूजा के वेदों में बारह प्रकार के पुत्र माने गये हैं। एक, जिसे जन्म दिया जाए। दूसरा, अपनी बेटी का पुत्र। तीसरा, अपनी पत्नी का दूसरे पुरुष से पैदा हुआ पुत्र। चौथा, अपनी कुँवारी कन्या का पुत्र। पाँचवाँ, पत्नी के पुनर्विवाह से हुआ पुत्र। छठा, दूसरे को गोद दिया गया पुत्र। सातवाँ, किसी माता-पिता से ख़रीदा हुआ पुत्र। आठवाँ, शुभ गुणों के कारण किसी को माना हुआ पुत्र। नौवाँ, किसी अनाथ बच्चे को पुत्र समान सोचा गया पुत्र। दसवाँ, विवाह के वक़्त गर्भवती स्त्री का पुत्र। ग्यारहवाँ, अपनी स्त्री से ऐसे पुरुष द्वारा उत्पन्न हुआ पुत्र जिसका पता न लगाया जा सके। और बारहवाँ, किसी कारण माँ-बाप का त्याग दिया गया पुत्र, जिसका पालन-पोषण किया जाए।’’साँसें गोता खाने लगीं। पाताल, गंगा में नहीं, हैरानी में। मन आस-पास के समाज से निकलकर उस वक़्त की तरफ़ देखने लगा-जब कुँवारी कन्या का पुत्र भी दम्पती के लिए पुत्र हुआ करता था, और जब विवाह के वक़्त गर्भवती पत्नी का पुत्र भी पुत्र होता था...आजकल के अख़बारों में मैंने प्रायः उन नालियों का ज़िक्र पढ़ा हुआ है, जिनमें सद्यःजात शिशु मृत अथवा जीवित मिलते हैं...शायद माथा नहीं पर मन ज़रूर निधि महाराज के ज्ञान के आगे झुक गया। सिर्फ़ इतना ही कहा, ‘‘माँ कई बार अपनी एक परलोक सिधार गयी बेटी का ज़िक्र किया करती थी। कहा करती थी, मरकर वही तुम्हारी सूरत में पैदा हो गयी-वही आँखें वही माथा वह हँसी...’’साथ ही, ख़याल आया-जब माँ मेरी सूरत मृत बहन की सूरत के साथ मिलाती थी; तब सब स्वाभाविक लगता था। उसने मुझे कभी नहीं बताया कि मैं उसका गोद लिया हुआ पुत्र था। पर...मुझे जैसे हँसी आ गयी। निधि महाराज से कहा, ‘‘आत्मा पुत्र को जन्म देती है, पर साथ ही शायद भ्रम भी पातली है। माँ यह भूल गयी कि उसकी मृत बेटी की सूरत लेकर मैं कैसे जन्म ले सकता हूँ।’’निधि महाराज कुछ नहीं बोले। मैं ही माँ के उदास मन की बातें सुना-सुना कर माँ के भ्रम पर हँसता-सा रहा।उन्होंने सिर्फ़ यह बताया कि तुम्हें गोद लेते वक़्त, तुम्हारे दूर के इस चाचा ने जो दुहाई दी थी, उस बात का खण्डन भी धर्म के नाम पर किया गया था। वह सच भी था। तुम्हारे पिता की मृत्यु अचानक हुई थी, मृत्यु से पहले उन्होंने तुम्हें गोद लेने का निश्चय किया हुआ था। इसलिए माँ भले ही विधवा थी, जब उसने तुम्हें गोद लिया तो उसके निश्चय में तुम्हारे पिता का निश्चय भी शामिल था। दोष मुझ पर भी लगाया गया था कि मैंने पूजा के लोभ में आकर तुम्हारी माँ को इस अधर्म से रोका नहीं था, पर झूठे दोष से क्या होता है...उस वक़्त निधि महाराज ने अपने अँगोछे की गाँठ में बँधी हुई सोने की चूड़ियाँ मेरी हथेली पर रख दीं, जो आज सुबह माँ ने उनके चरणों में चढ़ायी थीं। कहने लगे, ‘‘चूड़ियाँ तुम्हारी माँ को बहुत प्यारी थीं। उसकी चल बसी बेटी की निशानी थीं ये। यह निशानी अब तुम्हारे पास रहनी चाहिए...’’संकोच-सा हुआ। कहा, ‘‘पर यह माँ का दान है...’’निधि महाराज हँस दिये-‘‘दान का हक़ सिर्फ़ तुम्हारी माँ को था, मुझे नहीं है ? तुम यह मेरा दान समझ लो। यह मेरी अन्तरात्मा की आवाज़ है कि चूड़ियाँ इसी घर में रहनी चाहिए। इस घर में जब घर की बहू आएगी, ये उसके हाथों में होनी चाहिए....’’आज तक ब्राह्मण-लोभ की बात, जो भी देखी-सुनी थी, निधि महाराज ने मेरी आँखों के सामने उसका खण्डन कर दिया। इसलिए मन फिर एक बार उनके आगे झुक गया।आज के तूफान के बाद, मैं इस सुख का पल सँभालकर अंजुलि में भर लेना चाहता था, पर हाथों में सामर्थ्य नहीं थी। मुँह से निकला, ‘‘आपने माँ से कभी नहीं पूछा था कि मैं कौन हूँ ?’’निधि महाराज ने नज़र भरकर मेरी ओर देखा। बोले, ‘‘मैं सिर्फ़ यह जानता हूँ कि तुम एक धर्म-प्राण माँ के पुत्र हो। आज तुमने अपनी माँ के शब्द सुने थे, जब उसने तुम्हारे पिता की तस्वीर को फूलों का हार पहनाया था ? वह फूलों की जयमाला थी। उसने कहा था-आज सत्ताईस तारीख़ है, आज बृहस्पति तुला में आया है, आज मेरा संजोग है...’’माँ ने कहा था, पर उसकी बात मेरी समझ से बाहर रही आयी। इस वक़्त भी याद नहीं थी। निधि महाराज ने उसके शब्द दोहराये, तो याद आयी। मैंने पूछा, ‘‘मैं कुछ नहीं समझा था, इसका क्या मतलब था ?’’‘‘वह तुम्हारे पिता के निधन के बाद सिर्फ़ तुम्हारा मुँह देखकर जीती रही। तुम्हें पालने के लिए, तुम्हें पढ़ाने के लिए, तुम्हें बड़ा करने के लिए। वैसे वह तुम्हारे पिता से बिछुड़कर जीना नहीं चाहती थी। वह इस दुनिया से विदा होकर, अगली दुनिया में तुम्हारे पिता से मिलने का इन्तज़ार कर रही थी...उसे मालूम था कि आज के दिन बृहस्पति तुला राशि में आएगा, और जिनके विवाह बहुत देर से रुके हुए हैं, उनके संजोग बनेंगे। उसने अपनी मृत्यु को भी तुम्हारे पिता के साथ संयोग का दिन माना। सोचा, अब वह अगली दुनिया में जाकर तुम्हारे पिता से मिल सकेगी। इसीलिए उसने किनारीवाला दुपट्टा ओढ़ा। तुम्हें पालकर बड़ा करनेवाले कर्तव्य से वह मुक्त हो गयी थी। उसके लिए यह मृत्यु उसके संयोग का दिन था। इसलिए कहता हूँ कि वह धर्मात्मा थी...’’मैं बोल नहीं सका। मन का सवाल गूँगा-सा होकर निधि महाराज के मुँह की ओर ताकता रहा...वह चले गये हैं...सामने फिर अँधेरे की पाताल-गंगा बह रही है।नहीं जानता कि मन का कौन-सा चिन्तन इस पाताल-गंगा में डूब जाएगा, और कौन-सा उस दूसरे किनारे पर जा लगेगा।