Sunday, November 15, 2009

है न कमाल का आइडिया

दिल्ली सरकार ने भिखारियों को तड़ीपार का आदेश दे दिया था, जिस पर हाईकोर्ट ने रोक लगाते हुए कहा कि यह गलत है. वह इस फैसले को राज ठाकरे के गैरमराठियों के भगाये जाने के फैसले से जोड़ती है.
अगर मान भी लिया जाए कि ऐसा ही है, तो इसमें गलत क्या है. आखिर राजठाकरे अपने इसी कृत्य के चलते तो शासन तंत्र में पहुंचे हैं. है कि नहीं. और लोकतंत्र में राजनैतिक दलों का अंतिम लक्ष्य क्या है, सत्ता में ही पहुंचना न.
अगर सत्ता में जनता को मारकर या अपने यहां से भगाकर पहुंचा जा सकता है, तो क्या जरूरत है, उन्हें पालने-पोसने की. दूसरी बात यह कि जनता को जब सरकारें पसंद नहीं आती तो वह उन्हें हटाती नहीं है क्या? तो फिर सरकार को अगर जनता पसंद नहीं आती, तो वह उन्हें क्यों नहीं हटा सकती. ये कैसी स्वतंत्रता है, जिसमें एकतरफा आजादी है? जवाबदेह सिर्फ सरकार है, जनता क्यों नहीं? क्यों नहीं सरकारें भी अपने पसंद की जनता चुन सकती. कवि ब्रेख्त ने भी तो राजनेताओं को जनता को भंग करने की सलाह दी ही है. अगर सरकारें उस सलाह पर अमल कर रही हैं, तो इसमें बावेला कैसा.
आप ही बताइए भिखारियों से किसी देश का कभी भला हुआ है क्या? भला तो बड़े-बड़े सेठ करते हैं, जो चंदा देते हैं राजनीतिक दलों को. जिनसे वे चुनाव लडक़र सत्ता में पहुंचते हैं. इसलिए चंदा देने वालों को इनकमटैक्स रिबेट भी दिया जाता है. चंदा लेने का हक तो सिर्फ राजनीतिक पार्टियों को है. उनके जैसा व्यवहार कोई और चाहे भिखारी ही करें, तो इसे मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं माना जायेगा. लेकिन भिखारी हैं कि बाज ही नहीं आ रहे. लोगों से चंदा (भीख) ले रहे हैं. कल को ये यह भी दावा कर सकते हैं कि जब हम चंदा ले रहे हैं, तो शासन चलाने के हकदार भी हमीं हैं. इस नारे के साथ कि पूरी तरह स्वदेशी और आमजनों की सरकार के साथ वह चुनाव में भी ताल ठोंक सकते हैं. जनता के बीच जाकर कह सकते हैं- सरकार विश्व बैंक और अंतरराष्टï्रीय मुद्रा कोष जैसे विदेशी संस्था और दूसरे देश के अलावा बड़े-बड़े उद्योगपति-पूंजीपति के सामने हाथ नहीं फैलाती क्या? तो हम चंदा लेते हैं क्या बुरा है. हम तो पूरी तरह स्वदेशी आम आदमी से चंदा लेते हैं. इसलिए जनता के भी असली नेता हम ही हैं. इसलिए जनता हमें ही चुनें, चूंकि हम पैसा आप से लेते हैं, इसलिए जवाबदेह भी आप के लिए ही होंगे. किसी विदेशी देश या पूंजीपति के लिए नहीं. यह सरकार तो विकसित देश और पूंजिपतियों के हाथों बिकी हुई है. यह आपकी नहीं सुनेगी. अब आप ही बताइए इस तरह की साजिश की बू अगर किसी सरकार को लगे, तो क्या वह कभी चुप बैठेगी, नहीं न. बस यही मामला है. चूंकि दिल्ली सरकार इस आसन्न खतरे को भांप गयी थी. इसलिए दिल्ली को खूबसूरत बनाने और राष्टï्रमंडल खेल का बहाना बनाकर उनसे छुटकारा पाने की कोशिश में लगी है. इससे तात्कालिक फायदा तो दिल्ली सरकार तो होगा ही होगा. लेकिन दीर्घकालीन पूरे देश के राजनीतिक दलों और सरकारों को होगा. क्योंकि उन्हें वापस उनके पैतृक निवास भेजने से वे एकजुट भी नहीं रह पायेंगे. उनकी एकता खत्म हो जायेगी. क्योंकि वह सब अलग-अलग जगहों से आये हुए लोग हैं. फिर वह इस तरह की कोई कोशिश नहीं कर पायेंगे, जिससे केंद्र समेत बाकी के राज्य सरकारों पर खतरा मंडराए. उसके बाद निरापद हो कर राजनैतिक दल ही सरकार बनायेंगे, उनकी सत्ता को कोई चुनौती नहीं दे पायेगा. था न दिल्ली सरका का कमाल का आइडिया, लेकिन हाईकोर्ट के एक फैसले से इस पर तुषारापात पड़ता दिख रहा है.

3 comments:

  1. इस विषय पर लिखने के लिए साधुवाद। हालांकि मेरा पहले वाला मित्रवत सुझाव है कि विषय उठाया जाए और उसके मूल पर हमला बोला जाए। आपका प्रयास सराहनीय है। इस लेख को देखकर मुझे मतवाला अखबार जैसी तासीर का आभास मिला। उसमें बड़े ही चुटीले और व्यंगात्मक ढंग से गंभीर से गंभीर विषयों पर बड़ी दिलेर टिप्पणी की जाती थी और शिकार मन मसोस कर रह जाता था।

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  2. Aapko kya lagta hai. Aapne kaise is visay ko uthaya hai. Kya aap delhi main bhikariyo ke favour main hai. kya aapke hisab se, vyangya ko chod diya jay, delhi sarkar ne galat kiya hai. hame patrakarita ke uss daur se jitni jaldi ho nikal jana chachiye jahan keval aur keval vyavastha ko gali dee jati hai, uska dosh khoja jata hai. kabhi sarkar ki mazburi ko bhi dekhna chahiye. Kya bhikariyon ko janta mantey huye Bhik ko pasha ka darza dena uchit hoga. kisi baat ki khal nikalna bahut aasan hai, Asha hai aap is vishay per phir gambhirta se sochenge aur dobara likhenge.

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  3. वाह, बात कहने का अंदाज पसंद आया। लेखन शैली पर संदीप जी की टिप्‍पणी से पूरी तरह सहमत हूं।

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